आज से 130 साल पहले जब एक भारतीय संन्यासी ने पश्चिमी सभ्यता को चमत्कृत कर दिया था शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन की उनकी बातें आज भी दुनिया के लिए प्रेरणा का सबब बनी हुई हैं
आज दुनिया स्वामी विवेकानंद की 162 वीं जयंती पर उन्हें याद कर रही है
आज हम स्वामी विवेकानंद के 162 वीं जन्म जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मना रहे हैं। इस अवसर पर देश और दुनिया भर में उनको याद किया जा रहा है ।भारत मंडपम में विकसित भारत यंग लीडर्स डायलसॉग का आयोजन भी हो रहा है।
भारत के गौरव स्वामी विवेकानंद का जन्म आज 12जनवरी 1863 को कोलकाता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। आज 2025 में हम उनकी 162 जंयती मना रहे हैं। 2025 में आयोजित राष्ट्रीय युवा उत्सव में आज का विषय युवा एक सतत भविष्य के लिए राष्ट्र: राष्ट्र को लचीलापन और जिम्मेदारी के साथ आकार देना है। स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस को 1984 से देश में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
आज 2025 में उनके जन्मदिन पर Ai जनरेटेड एक जीवंत तस्वीर भी साझा की गई है। उनके जीवन से जुड़ी और घटनाएं आज भी दुनिया का मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं ।
Ai जनरेटेड फोटो
शिकागो धर्म सम्मेलन की उनकी बातें आज भी दुनिया का मार्गदर्शन कर रही है
11 सितंबर 1893 के दिन जब शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में एक युवा भारतीय संन्यासी ने बोलना शुरू किया तो पश्चिमी देश अमेरिका की श्रोता तक तो आभास नहीं था कि वो बहुत जल्द ही इस संन्यासी के शब्द उन्हें चमत्कृत कर देंगे कि वो उसमें खो जाएंगे। शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में बोला गया उनका एक एक शब्द आज ऐतिहासिक हो गया है।
स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में क्या कहा इसे जानते हैं–
मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों!
आपने जिस सम्मान सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
कोलकाता ने उनके घर की तस्वीर जिसे 2024 में मैने ली थी।
विवेकानंद के शिक्षा दर्शन–
स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त
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स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –
१. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।
२. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने।
३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।
४. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।
६. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।
९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।
१०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।
११. शिक्षा ऐसी हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ती दे।
गुरु से ईश्वर का प्रमाण मांगने वाले युवा –
स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी हुई एक घटना का उल्लेख करना यहांआवश्यक लग रहा है ।बताया जाता है स्वामी विवेकानंद जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आए ,तब उन्होंने एक दिन उनसे सवाल किया की क्या दुनिया में ईश्वर है, उनके गुरु शांत रहें ।एक दिन होने यही सवाल फिर दोहराया ? तब स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि ईश्वर हैं इसका प्रमाण मैं स्वयं हूं , और उन्होंने अपना एक पैर विवेकानंद की छाती पर रखा, जिसके लगते ही वो इस तरह से ध्यानस्थ हो गए इस ध्यान की अवस्था से निकलने में उन्हें 12 घंटे से अधिक का समय लगा। स्वामी विवेकानंद ने प्रत्यक्ष तौर पर कोलकाता में अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण कृष्ण परमहंस की कृपा से मां काली के साक्षात दर्शन किए थे।